नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

सोमवार, 24 दिसंबर 2018

योद्धा संन्यासी विवेकानन्द- हंसराज रहबर

 "अध्ययन का उद्देश्य सत्य की खोज था और नरेंद्र जिसे सत्य समझ लेता था, उसकी जी-जान से रक्षा करता था। जब देखता था कि कोई दूसरा उसके विपरीत भाव या मत व्यक्त कर रहा है तो नरेंद्र चट विवाद पर उतर आता था और अपने सशक्त तर्कों और युक्तियों द्वारा उसे परास्त करके दम लेता था। पराजित व्यक्ति के बार बिलबिला उठते थे और नरेंद्र पर दम्भी होने का आरोप लगाने में भी संकोच नहीं करते थे। पर नरेंद्र के मन में किसी के प्रति द्वेष भाव नहीं था। और अपनी ही बात को ऊंचा रखने के लिए वह कभी कुतर्क का सहारा नहीं लेता था। उसे जो कहना होता था दूसरे के सामने साफ-साफ कहता था।" (योद्धा संन्यासी विवेकानन्द- हंसराज रहबर)




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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

बड़ी दीदी-शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

 "इस धरती पर एक विशेष प्रकार के प्राणी हैं, जो मानो फूस की आग हैं। वे तत्काल जल उठते हैं और झटपट बुझ भी जाते हैं। उनके पीछे हमेशा एक आदमी रहना चाहिए, जो जरूरत के अनुसार उनके लिए फूस जुटा दिया करे।  जैसे गृहस्थ घरों की कन्याएं, मिट्टी के दीये जलाते समय उनमें तेल और बाती डालती हैं, उसी तरह वे उसमें एक सलाई भी रख देती हैं। जब दीपक की लौ कुछ कम होने लगती है, तब उस छोटी-सी सलाई की बहुत आवश्यकता पड़ती है। यदि वह न हो, तो तेल और बाती होते हुए भी, दीपक का जलना नहीं हो सकता।" (बड़ी दीदी-शरतचंद्र चट्टोपाध्याय)




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मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

स्वेटर, कहानी संग्रह-अशोक जमनानी

 पिछले कुछ महीनों के सारे दुःख उसे अचानक याद आ गए। हर एक दुःख का सामना करते वक्त एक भरोसा उसके साथ रहा कि कभी न कभी ये समय बीत जायेगा और वो फिर से अपनी पुरानी ज़िन्दगी पा लेगा। लेकिन आज न जाने क्यों उसके अपने  पाँव ही उसका साथ नहीं दे रहे थे। मज़दूरी करते वक्त छह दिन वो इसी उम्मीद में काटता था कि शनिवार की रात से सोमवार सुबह तक वो अपने घर में अपनी मर्ज़ी का मालिक रहेगा। यह एक उम्मीद ही उसके भीतर दूसरी हर एक उम्मीद को जन्म देती थी। (स्वेटर, कहानी संग्रह-अशोक जमनानी)



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शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

आँगन में एक वृक्ष- दुष्यन्त कुमार

 "मुंशीजी ने कभी किसी से कड़वी बात नहीं कही, कभी किसी पर गुस्सा नहीं किया और कभी किसी को नाराज नहीं किया। हालाँकि कई  बार मुंशीजी ने पिताजी के लिए काश्तकारों की जमीनें हड़पी, उन्हें बेदखल कराया या किसी पर सौ के बदले हजार रुपये की नालिश ठोक दी, मगर मीठे वे फिर भी बने रहे। अनेक ऐसे मौके भी आये जब मुंशीजी को उन लोगों की गालियाँ, धमकियाँ और जूते तक बरदाश्त करने पड़े। एक बार तो अपने भिक्खन चमार ने ही उन्हें स्टेशन से आते हुए, रास्ते में, मुंगड़पुर गाँव के ठीक बीचोंबीच पकड़कर दस जूते मारे थे" (आँगन में एक वृक्ष- दुष्यन्त कुमार)



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बुधवार, 5 दिसंबर 2018

हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़-विनोद कुमार शुक्ल

 "अपने सबके अन्दर चाहे कोई कितना भी छोटा हो पर सबकी गहराई अन्दर की गहरी है- खुद अपने अन्दर भी गिरते पड़ते रहते हैं एक और संसार अपनी गहराई में चाहे उल्टा बसा हो बाहर के संसार से कभी वहीं रहे आने का मन करता है रह लेना चाहिए। (हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़-विनोद कुमार शुक्ल)




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मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

कलाकार


वह किसी महान फिल्म की शूटिंग कर रहे थे, जिसमें उनका पात्र मुख्य भूमिका में था. 
जिसने उन्होने दर्जनों गुंडों को कुछ ही पलों में धूल चटा दी थी और कई गरीबों की मदद की व उन्हें न्याय दिलाया. शॉट बहुत बढ़िया गया था. डायरेक्टर सहित सारी टीम बहुत खुश नजर आ रही थी. कुछ ही देर में पैकअप की उद्घोषणा हुई. शूटिंग के बड़े कलाकार तो निकल लिए और स्पॉटबॉय सहित बाकी लोग पैकअप के काम में लग गए.  मुख्य पात्र अपनी लग्जरी गाड़ी में सेक्रेटरी के साथ जा रहे थे. रास्ते में एक एक्सीडेंट हुआ था जिसमें 2-3 घायल सड़क पर पड़े तड़प रहे थे.  सेक्रेटरी ने कहा 
"सर हमें यहाँ पर रूककर घायलों की मदद करनी चाहिए”. 
मुख्य पात्र ने कहा 
"क्या बात करती हो!" 
"अरे हम कलाकार हैं, हमें इन झंझटों में नहीं पड़ना चाहिए. इनकी मदद के लिए तो हजारों लोग मिल जायेंगे
जी सर” 
सेक्रेटरी ने मुख्य पात्र की बात सुनते हुये कहा. मगर उसका मन कह रहा था कि 
“क्या खाक् कलाकार हो तुम!"
"अरे असली कलाकार तो दूसरो की मदद करते हैं, जो कि तुमसे हो ही नहीं सकती”
         (कृष्णधर शर्मा) 05.08.2018

वतन


                                                    
सरकारी अस्पताल में घायल जवान की मरहम पट्टी करते हुए नर्स ने पूछा
"आप को इतनी सारी चोटें कैसे लगीं!"
जवान ने जख्मों के दर्द को दबाते हुए चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाते हुए कहा 
"वतन की मोहब्बत के जख्म हैं ये"
नर्स ने कहा 
"मैं समझी नहीं!" 
"मुहब्बत में तो सुकून मिलता फिर जख्म कैसे!"
जवान ने फिर हँसते हुए कहा 
"वह मोहब्बत ही कैसी जिसमें जख्म न मिलें"
इतना कहते-कहते जवान की आवाज ने गंभीरता का लबादा ओढ़ लिया था.
"हम अपने वतन और वतनवालों की हिफाजत में अपनी जान की बाजी तक लगा जाते हैं, मगर वतनवाले हमारा स्वागत पत्थर मारकर करते हैं
नर्स ने कहा 
"मगर पत्थर तो लोग पागलों को मारते हैं न!"
जवान ने फिर हँसते हुए कहा 
"हम भी किसी पागल से कम कहाँ हैं! जो अपना सबकुछ छोड़कर वतन की हिफाजत में अपनी सारी जिंदगी गुजार देते हैं!”
नर्स यह सुनकर खुद भी जवान को पागलों की तरह देखती रह गई
         (कृष्णधर शर्मा) 05.08.2018