नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

सोमवार, 17 अगस्त 2020

आत्मदान- नरेन्द्र कोहली

 "राजवर्धन का सारा संस्कार क्षत्रियों की भांति हुआ था किन्तु उनमें क्षत्रिय दर्प कभी नहीं जागा।... उनका शरीर सक्षम ठौर शास्त्र-विद्या भी उन्होंने सीखी थी, पर युद्ध...। युद्ध में उनकी तनिक भी रुचि नहीं थी। युद्ध किसलिए? कोई क्यों किसी को अपना शत्रु मानता है? क्यों वह युद्धक्षेत्र में शवों के ढेर लगा देता है? हत्या में भी कोई सुख होता है क्या? किसी जीव का वध करने में क्या उपलब्धि है? बहता हुआ रक्त देखकर राज्यवर्धन को कभी प्रसन्नता नहीं हुई।   

तब भी उन्होंने अत्यंत उदासीन भाव से पिता को निहारा था, "पिताजी! यद्यपि आपने मेरे नाम राज्यवर्द्धन रखा है किन्तु मेरी न तो राज्य में कोई रुचि है, न राज्य के वर्धन में। युद्ध किसलिए पिताजी? अपने ही जैसे मनुष्य के संहार के लिए? क्षत्रिय का शरीर कवच धारण करने के योग्य क्या केवल इसलिए होता है कि वह युद्ध के नाम पर हत्याएं करे? जीवित मनुष्य को शवों अथवा पंगु, लुंज-पुंज पीड़ित शरीरों में बदल दे।...नहीं पिता! मनुष्य के जीवन का, उसकी क्षमताओं का लक्ष्य कुछ और होना चाहिए!" (आत्मदान- नरेन्द्र कोहली)



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शनिवार, 15 अगस्त 2020

कुत्तों का रोना

कुत्तों को आज फिर खाना नसीब नहीं हुआ
रात से ही शुरू हुई बारिश देर शाम तक चली
बारिश जरा थमी तो लोग अंगड़ाई लेते हुए
जकड़न मिटाने अपने-अपने घरों से निकले
मगर बारिश ने उन्हें उससे भी कम वक्त दिया
जितना वक्त कर्फ्यू में मिल पाता है लोगों को
जरूरी सामानों की खरीददारी करने के लिए
भुनभुनाते हुए लोग फिर अपने घरों में घुस गए
कुत्तों को जो आशा मिली थी खाना मिलने की
बारिश शुरू होते ही ख़त्म सी हो गई
सुबह के भूखे कुत्तों से जब बर्दाश्त नहीं हुआ
तो फूट पड़ी उनकी रुलाई रोने लगे एक सुर में
घर की महिलाओं ने कहा अपने घर के पुरुषों से
कुत्तों का रोना बड़ा अपशकुन माना जाता है
जाओ उन्हें भगाओ अपने घर के सामने से जरा
पुरुषों ने भी उठाई अपनी छतरी और निकले बाहर
खदेड़ दिए गए कुत्ते अपने घरों के सामने से
भूख से रोते कुत्ते जहाँ भी गए वहीँ से भगाए गए
सब डर रहे थे कुत्तों के रोने से अपशकुन से
किसी को भी गलती से यह ख्याल नहीं आया
कि यह रोते हुए कुत्ते कहीं भूख से तो नहीं रो रहे...

                 (कृष्ण धर शर्मा, 14.08.2020)

ऐ जिंदगी जाने दे मुझे अनजानी राहों में

जिंदगी की बेतरह, बेवजह
भागम-भाग से थककर
जब उसने, मौत को
अपने गले लगाना चाहा
जिंदगी हर बार उसका
रास्ता रोककर खड़ी हो गई
तुम मुझे अपनी कैद से
आजाद क्यों नहीं होने देती!
जब-जब उसने पूछा सवाल
जिंदगी ने दिया उसे हरबार
वही रटा-रटाया जवाब
इससे पहले कि मौत को
तू अपने गले से लगा
अरे! जाने से पहले मेरा
कर्ज तो चुकाता जा...

              (कृष्ण धर शर्मा, 11.08.2020)

प्रकृति की गोद में

पहाड़ों पर उतरे हैं बादल
पूछने या बताने!
एक-दूसरे का हाल-चाल
या शायद दोनों ही!
मैं भी तो आखिर भाग ही आया
घबराकर कांक्रीट के जंगलों से
प्रकृति की गोद में
नया ठिकाना है अब मेरा
पेड़ों, पहाड़ों और बादलों के बीच
जहाँ पर महसूस कर पाता हूँ
मैं खुद को और जीवन को भी

             (कृष्ण धर शर्मा, 12.08.2015)

व्यवस्था के खिलाफ

मारा जायेगा हर वह आदमी
जो उठाएगा सवाल
तुम्हारी इस भेदभावपूर्ण
व्यवस्था के खिलाफ
दबा दी जाएगी हर वह आवाज
जो उठेगी तुम्हारे खिलाफ
काट दी जाएगी हर वह नस
जिसमें बहेगा लहू तुम्हारी
अतिवादी सोच के खिलाफ
बंद कर दिए जायेंगे हर वह रास्ते
जो जाते हों मानवता के मंदिर की ओर
मजबूर कर दिया जायेगा सबको
आपस में नफ़रत करने पर
एक-दूसरे को मारने-काटने पर
फिर सबकुछ वैसा ही होने लगेगा
जैसा कि तुम कल्पना करते थे
मगर क्या तुम जी पाओगे चैन से!
जबकि न होगा तुम्हारा कोई विरोधी
अगर तुम गड्ढे में भी गिरने वाले होगे
तो कोई भी नहीं करेगा तुम्हें सचेत
क्योंकि सब तो तुमसे डरे हुए ही होंगे!

      (कृष्ण धर शर्मा, 19.01.2020)

अवांछित

तुम बनाओ अच्छे-अच्छे मकान
बड़ी-बड़ी साफ़-सुथरी कालोनियां
उनमें बनें ख़ूबसूरत बाग़-बागीचे
जिसमें सुबह की सैर पर आ सकें
संभ्रांत और आभिजात्य लोग
मगर यह भी ध्यान रखना कि,
उन कालोनियों, बाग़-बागीचों में
घुसने न पायें गंदे कपडे पहने हुए
भूखे-नंगे और फटेहाल गरीब लोग
नहीं तो तुम्हारी आभिजात्यता को
पहुँच सकती है चोट, हो सकती है आहत
तुम बनाओ अच्छी-अच्छी चमचमाती
और बेहद ही साफ-सुथरी मखमली सड़कें
जिस पर चल सको तुम और तुम्हारे जैसे
सभ्य, संभ्रांत और आभिजात्य लोग
हाँ मगर यह भी ध्यान रखना कि,
उसमें घुसने न पायें कोई भी ठेलेवाले
फेरीवाले, सब्जीवाले या रिक्शेवाले
नहीं तो पड़ सकती है बाधा, रूकावट
तुम्हारे बनाये नियमों, कानूनों में
तुम्हें हो सकती है एलर्जी
ऐसे लोगों को देखकर
जो हैं तुम्हारी बनाई हुई
व्यवस्था में अनचाहे अवांछित

       (कृष्ण धर शर्मा, 04.01.2020)

दिवाली की छुट्टी

इस दिवाली घर नहीं आ पाउँगा
छुट्टी नहीं मिल पाई है माँ!
मालिक का भी दोष नहीं है माँ
क्या करें! काम ही बहुत सारा है
इतनी सारी जिम्मेदारी है मेरे सिर
मैंने आने की बहुत कोशिश की माँ
मगर क्या करूँ! नौकरी तो करनी है न
त्योहारों में गाड़ी में रिजर्वेशन भी
कहाँ मिल पाता है माँ
आपको तो पता है मेरी मजबूरी
फिर यहाँ मेरा भी तो परिवार है न
त्योहार में मेरे घर जाने से
बच्चे भी तो दुखी होंगे न!
मुझे तो बहुत कुछ देखना पड़ता है माँ
मोबाइल फोन को कान में लगाये
बेटे की मजबूरियों को सुनती हुई माँ
सोचने लगती है कि बेटा तो
सचमुच ही घर आना चाहता था
मगर नौकरी की दुश्वारियों के चलते
अपने ही घर नहीं आ पा रहा है
भोली माँ यह बिलकुल नहीं समझ पाती
कि दिवाली में भला कौन काम करता है
या किसे छुट्टी नहीं मिल पाती है
खैर! अब तो माँ ने भी बिना बच्चों के
दिवाली और होली मनाना सीख लिया है...

          (कृष्ण धर शर्मा, 29.10.2019)

कागजी रावण

हर वर्ष जलाते हो रावण
पर ख़त्म नहीं कर कर पाते हो
अपनी असफलताओं पर भी
तुम क्यों इतना इतराते हो
थक चुके हो जला-जलाकर
तुम बाहर के रावण को
कभी झांककर देखो तुम
अपने भीतर के रावण को
इस रावण को मरोगे तो
तभी मरेगा असली रावण
वरना तुम्हारी कई पीढियां
जलाती रहेंगी कागजी रावण

      (कृष्ण धर शर्मा, 08.10.2019)

पुरखों की विरासत

पेड़ों को काटते या कटवाते हुए
क्या सचमुच नहीं कांपते
तुम्हारे हाथ या हृदय!
क्या पाषाण हो चुकी हैं
तुम्हारी संवेदनाएं व् सोच
क्या तुम्हें नहीं दीखता
तुम्हारे बाद आनेवाली
पीढ़ी का भयावह भविष्य
जिसमें सांस लेना तक होगा मुश्किल
जिस तरह से अपने पूर्वजों के
लगाये हुए पेड़-पौधों से
तुम पाते हो फल-फूल, और
सुस्ताते हो उनकी शीतल छाँव में
सोचकर देखो कि तुम
क्या देकर जाओगे
अपने बच्चों को विरासत में

    (कृष्ण धर शर्मा, 06.10.2019)

सर्वे भवन्तु सुखिनः

क्यों मांगते हो भगवान् से
कुछ भी सिर्फ अपने लिए ही
क्या तुम्हारी ही समस्याएं
दुःख, पीड़ा सबसे अधिक हैं
क्या तुम्हें नहीं लगता कि
भगवान् से मांगा जाये
सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयः
क्यों भूल जाते हो कि
सर्वे में तुम भी आते हो

        (कृष्ण धर शर्मा, 06.10.2019)

आदमी क्या करेगा!

 खेतों में जुताई-बुवाई-कटाई-मिंजाई
धान कुटाई, दाल-दलहन और पिसाई
यह सब काम मशीनें करेंगी
तो फिर आदमी क्या करेगा!
गड्ढा खुदाई, तालाब खुदाई, मेड बनवाई
घर बनाने का काम मशीनें करेंगी
तो फिर आदमी क्या करेगा!
आटा गूंधने के लिए आटा मेकर
रोटी बनाने के लिए रोटी मेकर
तो फिर आदमी क्या करेगा!
फैक्टरी में काम करने के लिए
मजदूर की जगह दैत्याकार मशीनें
कठिन काम करने के लिए रोबोट
तो फिर आदमी क्या करेगा!
समय बिताने के लिए टीवी मोबाइल
बच्चा पैदा करने के लिए
टेस्टट्यूब बेबी सेंटर
तो फिर आदमी क्या करेगा!
फिर आदमी आन्दोलन करेगा...

      (कृष्ण धर शर्मा, 11.6.2019)

नदी और जीवन

नदी है तो पानी है
पानी है तो जीवन की कहानी है
नदी है तो मानवता है
मानवता है तो सभ्यता है
जीवन, मानवता, सभ्यता, 
बचे रहें यह तीनों ही 
इसके लिए सबसे जरूरी है
नदी का बचना

        (कृष्ण धर शर्मा, 20.6.2019)

धरती माँ

धरती माँ ओ धरती माँ
तुम हो कितनी अच्छी माँ 
बिन मांगे ही सबकुछ देती
तुम हो कितनी सच्ची माँ
भेदभाव तुम ना कर पाती
सब बच्चों की प्यारी माँ
अच्छे-बुरे सभी को सेती
तुम हो सबसे न्यारी माँ

                (कृष्ण धर शर्मा, 23.03.2019)

स्त्री ही ऐसी हो सकती

स्त्री में तुमने क्या देखा
उसकी सुंदरता के सिवा
क्या देख सके वह कोमल मन
जिससे निकले है यह जीवन
क्या देख सके उसकी मेहनत
जिससे सजे है तुम्हारा तन-मन
तैरते ही रहे तुम सतहों में
गहराई में तुम न उतर सके
फिर पाओगे कैसे मोती
कैसे संवरेगा तुम्हारा मधुबन
भोर भये से रात गए तक
लडती झंझावातों से
काम में अपने मगन ही रहती
हारती कहाँ आघातों से
फिर भी तुम न पहचान सके
तो इसमें उसकी क्या गलती
दो जून की रोटी खाकर वह
वेतन बिन ही खटती रहती
तुम्हें खिलाये पूरा भोजन
जूठन खाकर भी खुश रहती
पुरुष नहीं हो सकता ऐसा
स्त्री ही ऐसी हो सकती 

            (कृष्णधर शर्मा 9.3.2019)

पुरुष का अधिकार

पुरुष को नहीं है अधिकार, नैतिक रूप से
सबके सामने रोने का
वैसे भी,घर में दादी, नानी, माँ, बुआ सहित
तमाम बड़े बुजुर्गों का कहना यही रहा है
कि, पुरुषों का रोना अपशकुन होता है
या, पुरुष भी कभी रोते हैं भला!
इन सब बातों का यह कत्तई मतलब नहीं है
कि, उसके पास आंसुओं की कमी है
या वह कम भावुक है बनिस्बत स्त्री के
इकठ्ठा होते-होते भर चुका होता है
उसके भी आंसुओं का बांध, मगर
वह जानता है कि उसके रोने से
टूट सकती हैं कई सारी उम्मीदें
धराशायी हो सकते हैं सपनों के महल
फिर वह नहीं कर पाता है साहस
उन सपनों को तोड़ पाने का
जिन्हें देखने में लगी हैं कई जोड़ी आँखें
और कितनी ही रातें
वह नहीं व्यक्त कर पाता
कभी-कभी अपनी थकान भी
क्योंकि दिनभर काम की
जद्दोजहद के बाद भी, उससे
रहती हैं कई अपेक्षाएं और आशायें
बहुत ही मुश्किल लगता है उसे
उन्हें नजरअंदाज कर पाना
फिर, वह बिखेरता अपने चेहरे पर
एक बनावटी और सजावटी मुस्कान
ताकि, उसकी थकावट देखकर
थक न जायें कितनी ही उम्मीदें

            (कृष्णधर शर्मा 9.3.2019)

गुरुवार, 13 अगस्त 2020

वरदान- मुंशी प्रेमचंद

 रुक्मिणी- ''यों कहने को जो चाहो कह लो, परन्तु वास्तव में सुख काले वर से ही मिलता है।'' सेवती- "सुख नहीं, धूल मिलती है। ग्रहण सा आकर लिपट जाता होगा।" रुक्मिणी- "यही तो तुम्हारा लड़कपन है। तुम जानती नहीं, सुन्दर पुरुष अपने ही बनाव-सिंगार में लगा रहता है। उसे अपने आगे स्त्री का कुछ ध्यान नहीं रहता। यदि स्त्री परम रूपवती हो तो, कुशल है। नहीं तो थोड़े ही दिनों में वह समझता है कि मैं ऐसी दूसरी स्त्रियों के हृदय पर सुगमता से अधिकार पा सकता हूँ! उससे भागने लगता है और कुरूप पुरुष सुन्दर स्त्री को पा जाता है, तो समझता है कि मुझे हीरे की खान मिल गई। बेचारा काला अपने रूप की कमी को  प्यार और आदर से पूरा करता है। उसके हृदय में ऐसी धुकधुकी लगी रहती है कि मैं तनिक भिबिसे खट्टा पड़ा तो यह मुझसे घृणा करने लगेगी।" 

चंद्रकुंवर- "दूल्हा सबसे अच्छा वह, जो मुँह से बात निकलते ही पूरी करे।" रामदेई- "तुम अपनी बात न चलाओ। तुम्हें तो अच्छे-अच्छे गहनों से प्रयोजन है- दूल्हा चाहे कैसा ही हो।" सीता- "न जाने कोई पुरुष से किसी वस्तु की आज्ञा कैसे करता है। क्या संकोच नहीं होता?" 

रुक्मिणी- "तुम बपुरी क्या आज्ञा करोगी, कोई बात भी तो पूछे?" सीता- मेरी तो उन्हें देखने से ही तृप्ति हो जाती है। वस्त्राभूषणों पर जी नहीं चलता।" (वरदान- मुंशी प्रेमचंद)




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शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

नौकर की कमीज- विनोद कुमार शुक्ल

 "लोग सब्जी बाजार से लौटते समय कैसे सर्राफ की दुकान में घुस जाते हैं और एक सोने की अँगूठी खरीद लेते हैं? सोने की अँगूठी खरीदने घर का नौकर कभी नहीं जाएगा। सब्जी खरीदने जा सकता है। उससे एक-दो रुपये खो जाएँ, यहाँ तक तो ठीक है। पर दस-बीस रुपये वह नहीं पचा सकता। दफ्तर के साहब के लिए मँहगू कितना भी ईमानदार हो, पर सौ रुपये के लिए उसकी नीयत डोल सकती थी। यानी निन्यानवे रुपये तक वह ईमानदार था। हैसियत के अनुसार नीयत डोलने की सीमा निर्धारित होती है। मेरे जैसी हैसियतवाला, यानी संतू बाबू, जिसकी सालभर से ज्यादा नौकरी हो गई थी और करीब सालभर शादी को हो गया, वह चार-पाँच सौ में अपनी नीयत खराब नहीं करेगा।" (नौकर की कमीज- विनोद कुमार शुक्ल)



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लेबनान संकट

 महामारी और आर्थिक संकट से जूझ रहे मध्यपूर्वी देश लेबनान में मंगलवार को हुए धमाकों ने भारी तबाही मचाई है। राजधानी बेरूत के पोर्ट इलाके में एक वेयर हाउस में रखे 2750 टन अमोनियम नाइट्रेट के कारण कई छोटे-बड़े धमाके हुए, जिसने एक खूबसूरत शहर को मलबे और राख के ढेर में बदल कर रख दिया है। बताया जा रहा है कि इतनी बड़ी मात्रा में यह खतरनाक रसायन असुरक्षित तरीके से रखा हुआ था। 2013 में एक माल्दोवियन कार्गो शिप इस रसायन को लेकर जा रहा था, लेकिन तकनीकी खराबी आने के कारण इसे बेरूत में ही उतार दिया गया और उसके बाद से यह वेयरहाउस में रखा हुआ था। 

अमोनियम नाइट्रेट अमूमन खेती के लिए उर्वरक में नाइट्रोजन के स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसे ईंधन वाले तेल के साथ मिलाकर विस्फोटक भी तैयार किया जाता है, जिसका इस्तेमाल खनन और निर्माण उद्योगों में होता है। चरमपंथियों ने कई बार इसका इस्तेमाल बम बनाने में भी किया है। 

जानकारों का कहना है कि अमोनियम नाइट्रेट को अगर ठीक से स्टोर किया जाए, तो ये सुरक्षित रहता है। लेकिन अगर बड़ी मात्रा में ये पदार्थ लंबे समय पर ऐसे ही जमीन पर पड़ा रहा, तो धीरे-धीरे खराब होने लगता है। बेरूत के वेयरहाउस में रखे इस रसायन के बारे में भी यही कहा जा रहा है कि या तो इसका निपटारा किया जाना चाहिए था या फिर इसे बेच देना चाहिए था। 

लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार ने और संबंधित अधिकारियों ने इस ओर लापरवाही दिखाई और बेरूत को इतनी बड़ी औद्योगिक दुर्घटना का शिकार होना पड़ा। ये धमाके कितने शक्तिशाली थे, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 2 सौ किमी दूर साइप्रस में इसकी आवाज सुनी गई। धमाके के बाद जिस तरह की शॉकवेव उठी, उससे नौ किलोमीटर दूर बेरूत अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पैसेंजर टर्मिनल में शीशे टूट गए। इस हादसे में कम से कम 135 लोगों की मौत हो चुकी है और 5 हजार के करीब घायल हुए हैं। 

अस्पताल मरीजों और पीड़ितों से भर गए हैं। 3 लाख से अधिक लोगों के बेघर होने की आशंका है और 10-15 अरब डालर का नुकसान हो चुका है।  जहां धमाके हुए, वहां पास में ही सरकारी अनाज के गोदाम भी थे, जो अब पूरी तरह बर्बाद हो गए हैं। इन गोदामों में रखा करीब 15 हजार टन अनाज राख हो चुका है और अब लेबनान के पास केवल एक महीने की खाद्य सामग्री है। 

इसका मतलब आने वाले समय में भयंकर खाद्य संकट देखने मिल सकता है। लेबनान अपनी जरूरत का अधिकतर अनाज आयात करता है, लेकिन पहले से आर्थिक संकट झेल रहे देश के पास और अनाज आयात करने के लिए पैसे नहीं हैं। 

कुछ लोगों की लापरवाही लाखों लोगों के जीवन के लिए भयावह संकट साबित हुई है। हालांकि लेबनान के राष्ट्रपति मिशेल आउन और प्रधानमंत्री हसन दियाब ने मामले की कड़ी जांच करने और दोषियों को सजा देने की बात कही है, लेकिन इतिहास के अनुभव यही बताते हैं कि इस तरह के हादसों के जिम्मेदार लोग किसी किसी तरह बच निकलते हैं और जनता अपने घावों के साथ कराहती रह जाती है। बीते वक्त में चेर्नोबिल से लेकर भोपाल गैस कांड तक कई भयावह औद्योगिक दुर्घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें इंसाफ मिलने की उम्मीद समय बीतने के साथ कम होती जाती है। 

वैसे इस तरह की दुर्घटनाओं में जहां ताकतवर लोगों का स्वार्थी चरित्र उजागर हो जाता है, वहीं आम जनता की उदारता की ताकत भी दिखने लगती है। बेरूत में धमाकों के बाद सरकारी राहत और मदद की प्रतीक्षा करने की जगह बहुत से युवा स्वयंसेवी बनकर सड़कों पर उतर गए। दास्ताने और मास्क पहने ये युवा मलबा हटाने, सफाई करने से लेकर घायलों की तीमारदारी में लग गए। 

कई लोगों ने भोजन-पानी और दवा का इंतजाम किया। बहुत से लोगों ने अपने घरों में बेघरों को पनाह दी। कई व्यापारियों ने मरम्मत के काम को मुफ्त कर देने का प्रस्ताव रखा। ये तमाम लोग सरकार के ढीले-ढाले रवैये से नाराज हैं और अपने देशवासियों की मदद खुद करना चाहते हैं। बहुत से देश भी इस मुसीबत की घड़ी में लेबनान की मदद के लिए आगे आए हैं। 

जर्मनी ने खोज और बचाव विशेषज्ञ भेजे, मेडिकल सहायता का प्रस्ताव रखा है साथ ही रेडक्रास को 10 लाख यूरो की मदद की है। फ्रांस ने राहत और चिकित्सा सामग्री भेजी और इसके साथ राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों खुद लेबनान पहुंच गए। ऐसा करने वाले वे पहले विदेशी नेता बन गए। आस्ट्रेलिया, इराक, मिस्र, जोर्डन और अमेरिका जैसे तमाम देशों ने भी मदद की पेशकश की है। 

इस मानवीय संकट के वक्त मदद और सहानुभूति दवा की तरह साबित होते हैं। वैसे लेबनान के जख्मों को भरने में काफी वक्त लगेगा, यह बात भारत के लोग भी समझ सकते हैं, जो खुद भोपाल गैस कांड का पीड़ित है। उस घटना के लगभग 3 दशक बाद भी पूरी तरह उबरा नहीं जा सका है। इस तरह की घटनाओं के वक्त जांच और एहतियात जैसे शब्द काफी जोर देकर इस्तेमाल किए जाते हैं, लेकिन वक्त बीतने के साथ फिर लापरवाही का सिलसिला शुरु हो जाता है। 

भारत में ही भोपाल की घटना के बाद औद्योगिक दुर्घटनाओं को पूरी तरह रोका नहीं जा सका। लेबनान की घटना से दुनिया को एक चेतावनी और मिल गई है, पर क्या सरकारें इसे सुनने को तैयार हैं।


(साभार- देशबंधु)